बुधवार, जुलाई 20, 2011

दिल्ली दर्शन मेरे साथ - विनोद त्रिपाठी 2

मैंने 1 बात और भी नोट की । दिल्ली में 1 तरफ़ तो बेहद बाजारु माहौल है । और दुसरी तरफ़ कुछ जगह ऐसी भी हैं । जो बहुत शानदार और महँगी है । जहाँ बहुत ही अमीर लोग रहते हैं । असली महा सेठ । आज के जमाने के ।
खैर मैंने आराम से शराब खत्म की । शराब मैंने जानबूझ कर मास्टर और उसकी पत्नी के सामने नहीं पी । क्युँ कि वो दोनो पति पत्नी शराब विरोधी हैं । उसकी पत्नी जवाहर लाल नेहरू की भक्त है । कहती है - शराब के अलावा दुनियाँ में और कोई अवगुण नहीं ।
खैर, मास्टर रात को 8 और 9 के बीच फ़िर आ गया । मैंने कहा - मास्टर जी ! खाना कब खाने चलें ?
तो मास्टर बोला - खाना खा तो लिया था ।
मैंने कहा - कब ?

तो वो बोला - शाम को ।
मैंने कहा - शाम को 4 बजे खाया था । अब रात के 9 बजने वाले हैं ।
उसने कहा - मैंने नहीं खाना ।
मैंने कहा - भाई साहेब ! लेकिन मैंने जरुर खाना है । मैंने कहा - चलो अब चलते हैं आओ ।
मास्टर बोला - मैं साथ चल पडता हूँ । मेरी पत्नी और बेटियाँ नहीं जायेंगी । उन्हें भूख नहीं है । वो लोग आराम कर रहे हैं ।
तो फ़िर हम 3 लोग चल पडे ( मैं मेरी पत्नी और मास्टर ) लेकिन मास्टर लेकर फ़िर वहीं गया । सस्ते होटल में । खैर मैंने और मेरी पत्नी ने खाना खाया । मास्टर वहाँ आते जाते ग्राहकों को देखता रहा । फ़िर हम वापिस अपने अपने कमरों में आ गये । मेरी पत्नी आते ही सो गयी ।
मैंने सिगरेट जला ली । और खिडकी से बाहर देखने लगा । मैंने सोचा । मास्टर चटाके पटाके कर रहा होगा । उस

रात फ़िर सडक पर बहुत भीड थी । जो मुझे बिल्कुल भी अच्छी नहीं लग रही थी । मैं अपने घर के पास लाला लाजपत राय के नाम पर बने सरकारी पार्क के बारे में सोचने लगा । मैं सोच रहा था कि छोटे शहरों में बने बडे सरकारी पार्कों का अलग ही महत्व है । फ़िर मैं कल्पना करने लगा कि बढिया सरकारी पार्क के बाहर चाट पकोडी की रेहङी पर 2 सुन्दर और तन्दुरस्त लडकियाँ ( कोलेज में पढने वाली ) चाट खा रही हों । पास में ही किसी पान की दुकान पर मैं खडा सिगरेट पी रहा हूँ । दुकान पर पडे रेडियो पर 1991 में बनी फ़िल्म " फ़ूल और कांटे " का गाना चल रहा हो - ये दिल तेरे लिये ही मचलता है...तुम ही हो जिस के लिये दिल मरता है ।
फ़िर मैं नगर पालिका के बनाये हुए सरकारी पार्कों की कल्पना करते करते सो गया ।
अगले दिन फ़िर वही पराँठे वाली गली में नाशता किया । फ़िर हम लोग घूमने निकले । घूमते घूमते हम लोग दिल्ली के मशहूर बाजार पालिका बाजार चले गये । वहाँ मास्टर दुकानो में घुस कर चीज उठाता । और कीमत पूछने पर सामान नीचे रख देता । वहाँ फ़ालतू के सवाल जवाब कर रहा था । दुकानदारों को पूछ रहा था कि - इन चीजों का इतना रेट क्युँ है ? किस हिसाब से है ?
मैंने मन में कहा - तूने लेना देना कुछ है नही । बस ऐसे ही ...।
फ़िर हम वहाँ से निकल कर दुपहर को कुतुबमीनार देखने चले गये । वहाँ अंग्रेज लोग भी आये हुए थे । जिन्हें देख कर मास्टर का मूड खराब हो गया था ( शायद ) उस जगह आसपास और भी पुरानी बडी इमारतें बनी हुई हैं । मैंने वैसे ही कह दिया - देखो मास्टर जी क्या शानदार बिल्डिंग है । बेशक पुरानी है । लेकिन अभी भी इसकी शान है । बनाने वाले ने कितनी कलाकारी और मेहनत से बनाई होगी ।
वो बोला - होगी शानदार । उससे हमें क्या । हमने कौन सा इसे खरीदना है ।
मेरे दिल में तो आया कि ... को 1... लगा दूँ । लेकिन परवीन बाबी ( मास्टर की पत्नी ) के नाराज होने का खतरा था ।
खैर, फ़िर हमने किसी से पूछा कि - भई हम लोग यहाँ नये हैं । क्या कोई और अच्छी जगह है । घूमने के लिये ।
तो किसी ने कहा कि - फ़लाँ जगह पर 1 बहुत बडा " लोटस टेम्पल " बना है ।
मेरी पत्नी बेचारी बिलकुल ही साधारण और कम पढी लिखी है । टेम्पल का नाम सुनते ही कहने लगी - वहाँ चलते हैं ।

हम सब लोग पहुँच गये । लोटस टेम्पल । वहाँ 1 बहुत बडा खाली हाल कमरा था । बस । आसपास पार्क जैसी जगह थी । जब हम लोग हाल कमरे में पहुँचे । तो वहाँ पर कुछ नहीं था । बस अजीब सा साज सजावट का सामान रखा हुआ था । पता नहीं ये मन्दिर शायद जैन धर्म के लोगों का था । या किसी और का । 1 साला चूसे हुए आम जैसा पहरेदार सबको बोल रहा था - एक्सक्यूज मी जेन्टलमैन ! साईलेंस प्लीज । शान्ति ।
मैंने मन में कहा - शान्ति की नहीं । क्रान्ति की जरुरत है ।
फ़िर हम सब लोग उस बडे से कमरे से निकल कर बाहर पार्क में आ गये । मैं उस पार्क को देखकर, उस पार्क की तुलना लाला लाजपत राय के नाम पर बने हमारे घर के पास वाले पार्क के साथ कर रहा था । खैर, वहाँ पर कुछ भारतीय लोग वहाँ आये अंग्रेज लोगो के साथ

मिन्नत वगैरह करके उनके साथ अपनी फ़ोटो खिंचवा रहे थे । तब मास्टर और मास्टरनी भी मौके पर चौका लगा कर अपनी और अपने बच्चों की तसवीर अंग्रेज लोगों के साथ खिंचवाने में कामयाब हो गये । फ़ोटो खिंचवाते समय मास्टरनी गर्व से अपना सीना फ़ुलाये खडी थी ।
मैंने मन में कहा - ये हुई न बात ।
तब मास्टर बोला - त्रिपाठी जी ! आप भी आ जाईये ।
मैंने कहा - कोई बात नहीं । मैं जरा पेशाब कर के आया ।
मैंने जाकर गुस्से में पेशाब कर दिया । तुम युँ समझो कि बस बाथरुम को बरबाद कर दिया । मैं ये भी सोच रहा था कि मास्टर कल तो अपनी बेटी को बोल रहा था कि - इन अंग्रेजों को बडी मुशकिल से बाहर निकाला था । लेकिन आज सा.. ये खुद अपने परिवार सहित उन अंग्रेजो की बगल.. में घुसकर फ़ोटो खिंचवा रहा है ।

फ़िर मैं वापिस पार्क में आ गया । वहाँ किसी से पता लगा कि ये शायद कोई प्राइवेट संस्था की जगह है । मैंने सोचा कि दिल्ली में जगह की कमी है । इतने एकड जमीन पर ये फ़ालतू सा कमरा बनाकर और आसपास घास फ़ूस लगाकर कौन सा कमाल कर दिया । सरकार भी जो काम रोकना है । उसको रोकती नहीं । बस इधर थूक लगा देती है । और उधर तेल लगा देती है ।
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा । रहने को घर नहीं फ़िर भी सारा जहाँ हमारा ।
लानत है । उसके बाद मास्टर बोला - बच्चों को अप्पू घर दिखाना है ।
मैंने कहा - चलो ।
हम जब अप्पू घर पहुँचे । तो अन्धेरा हो चुका था ।
मास्टर बोला - त्रिपाठी जी ! कौन सा झूला झूलना है ?

मैंने कहा - मेरा ब्लड प्रेशर हाई रहता है । मैं नही झूलूँगा ।
मैं और मेरी पत्नी काफ़ी पीने के लिये साइड पर किसी बेंच पर बैठ गये । मास्टर और मास्टरनी में थोडा सा झगडा भी होना शुरु हो गया । उनके बच्चे किसी झूले पर बैठने की जिद कर रहे थे । लेकिन उस झूले के टिकट की कीमत ज्यादा थी । इसलिये उनमें बहस चल रही थी ।
मास्टरनी बोल रही थी - मैं 1 छोटे बच्चे के लिये इतना महँगा टिकट नही खरीदूँगी ।
मास्टर की छोटी बेटी लगातार रोये जा रही थी । मैंने मन में कहा कि - जब खर्चा करने की औकात नहीं । तो खर्चे वाली जगह पर क्यों..?
खैर, मैंने वहाँ पर 1 बात नोट की । वहाँ अप्पू घर में बहुत ही सुन्दर सुन्दर लडकियाँ घूम रही थी । प्रेमी जोडे भी बहुत थे । समझ नहीं आ रहा था कि किसको देखूँ । और किसको न देखूँ । कई प्रेमी जोडे तो सिर्फ़ 16, 17 या 18 साल तक के भी थे ।
राजीव राजा ! विश्वास करो । मैंने उनको गन्दी नजरों से नहीं देखा । मैं तो हैरान था कि इतने सुन्दर सुन्दर चेहरे एक साथ । लडकियाँ बहुत सुन्दर, गोरी, चिकनी और मुलायम किस्म की थी । लेकिन जो साथ में लडके थे । वो सब साले " कमर हिलाकर डिस्को और पप्पी लेकर खिसको " स्टायल के ही थे ।
मैं उन लडको की तुलना अपने शहर के लडके " जयकिशोर " से करने लगा । जयकिशोर नाम का लडका उस अखाडे में कसरत करने आता है । जिस अखाडे का मालिक मेरा दोस्त है । जयकिशोर 20 साल का है । बिलकुल ही साधारण घर से है । लेकिन उसके विचार साफ़ और नेक हैं ।
मैं सोच रहा था कि कहाँ हमारा जयकिशोर और कहाँ - ये साले टमाटर के बीज । लेकिन मुझे 1 हैरानी थी कि इन

लडकियों के माँ बाप इतनी ठंड में इतनी रात को इन्हें घर से दूर दोस्तों और सहेलियों के साथ घूम कर आने की इजाजत कैसे दे देते हैं ।
राजीव राजा ! वहाँ पर ( अप्पू घर में ) छोटे छोटे पार्क टायप स्थानों पर बडे बडे पेड भी लगे हुये हैं । और उन दिनों धुँध बहुत थी । मैं सोच रहा था कि कहीं सा.. ये दिल्ली के हरा.. लडके किसी लडकी के साथ धक्का न कर दें । लेकिन मुझे शक था कि जिस तरह लडकियाँ इनके साथ चिपक चिपक कर चल रही हैं । ये उनकी पप्पी पुप्पी जरुर ले लेते होंगे । मैं उठकर घुमने के बहाने इधर उधर टहलने लगा । मेरा इरादा था कि किसी कच्चे प्रेमी जोडे को रंगे हाथों चूमाचाटी करते हुये पकड लूँ । उसके बाद लडकी को तो जाने के लिये कह दूँगा । लेकिन उस लडकों को राशन पर भाशन दे डालूँगा ।
मैं कहूँगा - बेटा ! तुम्हारे घर पर तेरा पापा बैठा फ़ीकी चाय पी रहा होगा । और तुम यहाँ आईसक्रीम चाट रहे हो । लेकिन ऐसा हो नहीं सका ।

मास्टर आकर बोलने लगा - चलो त्रिपाठी जी ! अब लेट हो रहे हैं । सुबह जल्दी उठना है ।
मैंने कहा - चलो ।
फ़िर हम सब कार में बैठे । और वापिस अपने कमरे की तरफ़ आने लगे । इस बार मास्टर खुद ही बोल पडा - त्रिपाठी जी ! खाना रास्ते में खाकर फ़िर कमरों की तरफ़ चलते हैं । नहीं तो पहले कमरे में जायेगे । फ़िर वापिस खाना खाने आयेंगे । इससे टाइम फ़िजूल जायेगा ।
मैंने कहा - ठीक है ।
फ़िर हम खाना खाकर अपने अपने कमरों में आ गये । मेरी पत्नी बेचारी थकी हुई होने के कारण आते ही सो गयी । मैं सोच रहा था कि मास्टर पता नहीं आज रात चटाके पटाके करेगा या नहीं ?
क्युँ कि मास्टर और मास्टरनी में झगडा हो गया था ( अप्पू घर में ) लेकिन मैं आज खुश था । क्युँ कि अगली

सुबह हमारी भोपाल वापिस रवानगी थी । बस अगली सुबह हम लोग जल्दी उठकर बिना नाशता किये सिर्फ़ चाय पीकर वापिस भोपाल को हो लिये । मैंने फ़िर वापिसी पर अपनी पसन्द के ही गाने लगाये । नाशता हमने रास्ते में कर लिया ( हल्का फ़ुल्का ) और दुपहर का खाना इस बार मेरा कहना मानते हुये सबने किसी अच्छे रेस्टोरेन्ट में ही किया । भोपाल पहुँचते पहुँचते अन्धेरा हो चुका था ।
मास्टर ने कहा - हम रात का खाना रास्ते में पैक करवा लेते हैं । मैंने कहा - तुम लोग पैक करवा लो । हमारे यहाँ तो हमारा " पान्डु " है ।
मास्टर बोला - ठीक है ।
मैंने कहा - मैं तुम्हे अपने दोस्त के ढाबे से खाना पैक करवा देता हूँ ।
मेरे इतना कहने पर वो सा.. हरा.. का ढक्कन मास्टर मेरे को समझाने के स्टायल से बोला - त्रिपाठी जी ! ये साले बिजनेसमैन किसी के दोस्त वोस्त नहीं होते । आज तक कभी कोई बिजनेस मैन किसी का सच्चा दोस्त साबित नहीं हुआ ।
मैं परवीन बाबी ( मास्टर जी की खूबसूरत पत्नी ) के कारण चुप रहा । फ़िर वही हुआ । जो होना था । मास्टर ने किसी सस्ती जगह से सांडे के तेल में बनी दाल फ़्राई और रोटी पैक करवा ली । फ़िर मैंने मास्टर और उसके परिवार को उनके घर छोडा । और अपने घर आ गया । मेरे घर पर मेरा बाप और नौकर पान्डु बैठे आग सेक रहे थे ( ठंड से बचने के लिये )
मैंने अपने बापू से पूछा - हमारी गैर-हाजरी में सब ठीक ठाक रहा ?
मेरा बाप मेरे को 1 आँख बन्द करके बोला - बहुत बढिया ।
मैंने सोचा । मेरी गैर-हाजरी में इन सालों ने कहीं किसी के चटाके पटाके तो नहीं कर दिये ?
खैर फ़िर हम सब लोग खाना खाकर सो गये । अगले दिन मैं आराम से सोकर उठा । मुझे मेरी कालोनी का शान्त वातावरण और सर्दियों की सुनहरी धूप बहुत सुकून दे रही थी । मैं उस दिन शाम को 4 बजे से पहले पहले अपने दोस्त " बटुकनाथ लल्लन प्रसाद " के अखाडे में पहुँच गया । उसका अखाडा मेरे घर से तो दूर है । लेकिन शहरी

भीड भाड से थोडा अलग थलग ही है । वहाँ बैठकर मैंने अपने दोस्त ( अखाडे के मालिक ) के साथ बैठकर खालिस दूध की चाय पी । मेरे दोस्त ने अखाडे के पास ही भैंसे भी रखी हुई हैं । चाय के साथ नारियल के लड्डू भी खाये । अखाडे के आसपास का वातावरण बहुत अच्छा है ।
खुले खेत । लम्बे लम्बे पेडों की भरमार । गरीब । साधारण लेकिन अच्छे विचारों वाले भारतीय नौजवानों को वहाँ देसी कसरत करते हुये देखना मुझे बहुत अच्छा लगा । मैं वहाँ बैठा सोच रहा था कि इस 5 तत्व के पुतले ( जो आत्मा का वस्त्र हैं ) ने 1 दिन मिट्टी में ही मिट्टी हो जाना है । लेकिन सामने कसरत कर रहे नौजवान पहलवान जिन्दा रहते हुये ही कैसे मिट्टी से मिट्टी हो रहे हैं । वहाँ थोडी देर बैठने के बाद मैं अपने स्कूटर पर वहाँ से बाजार को चल दिया । रास्ते में पान की दुकान पर मुझे मेरा बाप सिगरेट पीता हुआ दिख गया । मैंने उसके पास जाकर स्कूटर रोक दिया । मेरा बाप कूदकर मेरे स्कूटर के पीछे बैठ गया । फ़िर मैंने अपना स्कूटर दौडा दिया । सब्जी मन्डी की तरफ़ ।

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